संपादकीय

बड़ी कठिन है डगर पत्रकारिता की…।। सिंहघोष के संस्थापक स्व.श्री शशिकान्त शर्मा “स्वतंत्र पत्रकार” जी की कलम से….

सा.सिंहघोष,अंक.3, सितंबर 8 से सितंबर 14.2009

चौथे स्तंभ के प्रहरी दयनीय दशा में जीते हैं. बड़ा तकलीफदेह मार्ग है- पत्रकारिता का इस डगर में सुवासित वायु प्रवाहित नहीं होती, इस रास्ते में पुष्प ही प्राप्त नहीं होते यह विकट कंटकाकीर्ण पथ है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने वालों को ही नित्य प्रति बेनकाब करना , उनके खिलाफ निष्पक्षता से कलम चलाना कोई हंसी – ठठ्ठा है क्या ? महानगरों , बड़े शहरों से हटकर सोचें कि रायगढ़ जैसे छोटे से शहर में जहां आपकी पैदाइश हुई हो , यहीं शैशव काल गुजरा,शिक्षाध्यन किया, पल-बढ़कर,ब्याह-शादी रचाई,अपना कैरियर चला रहे हैं ऐसी दशाओं में किसी का भी 2,4,5 हजार नगरवासियों से खासमखास न सही प्रत्यक्ष संबंध, मेल-मुलाकात होना सामान्य बात है।

अब इन्हीं जान पहचान के लोगों के ऊपर लिखना मौका पड़ने पर इनके विरूद्ध समाचार छापना कैसी धर्म संकट की घड़ियों का रोजाना कलमनवीसों को सामना करना पड़ता होगा विचारणीय पहलू है। जिसके भी खिलाफ समाचार बनाया , छापा वह तो हो गया आपका जन्म-जन्मांतर का दुश्मन। न छापो तो स्वयं की आत्मा ही धिक्कारने लगती है ,अपराध – बोध होने लगता है अपने कर्म के साथ न्याय न करने की पीड़ा सालने लगती है , पाठकों की कटु प्रतिक्रियाएं मिलने लगती हैं,पत्रकारिता की मिशन भावना,निष्पक्षता,निडरता,विश्वसनीयता पर सवालों की , आरोपों की तोपें दागी जाने लगती है। कलम से ज्यादा जॉबाजी प्रदर्शित की तो विज्ञापन बंद, हॉकरों को तुरंत हिदायत कल से पेपर मत डालना। अफसरों-नौकरशाहों ठेकेदारों उद्योगपतियों – व्यवसायियों सहित नेताओं , राजनीतिज्ञों की रगड़ाई करो तो इधर से भी वैसा ही सुलूक । अब बेचारे खबरनवीस करें तो क्या करें ? लिखें तो क्या लिखें ? किसके विरूद्ध समाचार प्रकाशित करें ? इस प्रकार की आलोचना,निंदा,छिद्रान्वेषण भी ऐसे लोग अक्सर करते हैं जो सत्य का साथ देने में महाभगोड़े होते हैं, संघर्ष नाम का जिनके जीवन से कोई ताल्लुक नहीं है। ईमानदारी,त्याग,साहस का जिनकी दिनचर्या में रत्ती भर भी समावेश नहीं होता है । ऐसे कढ़ी- बिगाड़,चिर-असंतोषी, पर-पीड़क किसी भी सिद्धांतवादी, चरित्रवान, सत्याग्रही,जुझारू,जीवट वाले व्यक्ति की कभी कोई मौखिक हौसला अफजाई तक नहीं करते हैं।

मात्र 1,2 रुपये वाले समाचार पत्र तक खरीदकर कभी भी न पढ़ने वाला सूम,अजगर की प्रवृत्ति वाला,मानसिक अय्याशों का यह विशेष वर्ग किसी का भी बेदर्दी से पोस्टमार्टम करने में बेहयाई से अग्रणी रहता है।

समाचार पत्रों के प्राण अथवा रक्त धमनियां वे रिपोर्टर,मैदानी संवाददाता होते हैं जिनका शायद ही कहीं कोई उल्लेख होता है । दिन-रात, हर पल-हर क्षण, हर कहीं जाकर समाचार संकलन करने वाले इन प्रेस रिपोर्टरों को बड़े – बड़े स्थापित समाचार पत्र, हजारों-लाखों की संख्या में प्रसारित होने वाले महाकाय अखबार क्या पगार देते हैं ? गुमनाम अनाम और अमूमन प्रत्यक्ष रूप से,लिखित में किसी भी प्रकार से ये लोग प्रेस के कानूनी कर्मचारी तक नहीं होते हैं । न इन्हें विज्ञापन में कोई हिस्सा मिलता है , न इन्हें कोई भेंट-सौगात-उपहार हासिल होते हैं । सब अखबार के मालिकों, प्रकाशकों, संपादकों के बीच ही बंट जाते हैं । फकत 2 से 4 हजार रूपल्ली मासिक पगार पाने वाले ये निरीह जन्तु इस महंगाई में,उभोक्तावादी दौर में,अनंत आवश्यकताओं वाले काल में कैसे गुजर बसर करते हैं ? कैसे अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं ? कैसे अपना पारिवारिक – सामाजिक दायित्व निभा पाते हैं ? जब समूचा समाज,राष्ट्र,हर वर्ग,प्रत्येक व्यवसाय,भ्रष्टाचार- बेईमानी -छल-कपट-अनैतिकता,चरित्रहीनता की गिरफ्त में हैं पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है ।

तब ऐसे भयावह कलियुग में बेचारे छोटे-छोटे इन खबरचियों से ही अंतहीन,उच्च स्तरीय आकांक्षाएं क्यों पालता है समाज ? प्रश्न यह भी है कि अभावों में जी रहे पेट पर पट्टी बांधकर अपना फर्ज निबाह रहे इसे वर्ग को यह सड़ा-गला समाज उचित सम्मान तक से क्यों वंचित रखता है ?

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