संपादकीय

“सीधी बात नो बकवास” जु़वा (ताश) को नेग मानने वाले क्या कर पाएंगे शहर को सट्टा मुक्त…??

सिंहघोष/ विगत दिनों से शहर की आबो हवा में अचानक सट्टा के खिलाफ़ लोगों का खून गर्म करने वाला जोश उबाल मार रहा है। जो कब खत्म,ठंडा हो जायेगा यह भी शोध करने लायक विषय होगा।

जिस सट्टे ने शहर के युवा व्यवसाई,मिलनसार,छोटे भाई मयंक मित्तल को असमय लील लिया,उसके प्रति मेरे मन में भी बराबर का आक्रोश है। हालाकि संबंधित विषय में मरहूम मयंक की मौत ये कोई नया या पहला मामला नहीं था। लेकिन मयंक को जानने वालों के लिए यह किसी वज्रपात से कम भी नहीं था।मयंक की अंतिम यात्रा में सभी वर्गो के लोगो ने सट्टे को सामाजिक बुराई मानते हुवे हाथों में तख्तियां लेकर सट्टे के खिलाफ पुरजोर विरोध किया था। जिसका असर पूरे प्रदेश में देखने को मिला।

आज हर तरफ सट्टे के खिलाफ जो माहौल बना है,उसमे पुलिस की कार्यप्रणाली पर इस तरह का सवाल उठना लाजमी बनता है, कि कैसे बिना पुलिस संरक्षण के कोई प्यादा सट्टा का वजीर या बेनाम बादशाह बन सकता है? जबकि सट्टे के खेल के शहंशाह आज भी वही है जो दो दशकों पूर्व थे उनको जांच,विरोध से बाहर ही रखा गया है। जिनको बाहर रखने में भी सट्टे का विरोध करने वालो का भाईचारा शहर में चर्चा का मुख्य विषय है। कल तक जिनको सटोरिया,बदमाश,गुंडा,छीलटा के नाम पुकारा जाता था आज उनको शहर का रहनुमा,समाजसेवी कहते जुबान पर छाले नहीं पड़ रहे है।

जबकि हमारी निजी जानकारी के अनुसार वो आज भी शहर में सट्टे की बड़ी कटिंग कर रहे है। क्या ये माहौल ऐसा ही बना रहेगा? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि शहर की तासीर हमेशा से ऐसी ही रही है।अब लोगो को सिर्फ किसका नाम आया,किसका आएगा,किसके कितने पैसे लगे,फरार कोन है,आगे क्या कार्यवाही होगी? सिर्फ इतना ही जानने से मतलब है।

जब समाज का एक बड़ा तबका जुवे को बुराई नहीं शादी,विवाह,दीपावली,खुशी में खेले जाना वाला नेग प्रक्रिया का समर्थक हो जाए तो सट्टे को भी रिवाज मानने में तनिक देर नहीं लगाएगा।

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