संपादकीय

“वेलेंटाइन डे”क्या बला,क्या कयामत है…??लुच्चई,नंगई की खौफनाक हिमाकत है…।।

कड़वा सच.. सिंहघोष के संस्थापक,स्वतंत्र पत्रकार,कलमकार स्व.शशिकांत शर्मा जी की कलम से….

बाज़ारवादी,उपभोक्तावादी संस्कृति के जनक जो न करके दिखा दें वह कम है.
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तीसरी दुनिया के आर्थिक
शोषण की नई-नई विद्या, विधायें ईज़ाद करती रहती हैं.
कृत्रिम मांगों,फिज़ूल की आवश्यकताओं की अवैध औलादें पैदा करने में सिद्धहस्त इन सरमायेदार कम्पनियों ने अपने शातिर दिमाग से एक नया पर्व?! विश्व को दे दिया है—–
“वेलेंटाइन डे”.
पिछले 2,3 दशक से प्रति वर्ष 14 फरवरी को इस “इडियट”दिन को एक उम्र विशेष के “इडियट” खास “इडियट” तरीके से सेलेब्रेट करते हैं.
कौन था ये “वेलेंटाइन”,क्या करता था ?
मल्टीनेशनल कम्पनियों ने रातों-रात एक ऐसे व्यक्ति की ईजाद कर दी जो आज से सैकड़ों साल पहले प्रेमियों की तथाकथित शादियाँ गुपचुप तरीके से करवा देता था.राज्यादेश का उल्लंघन करके.राजा ऐसे विवाहों का घोर विरोधी था.
ऐसी भी एक कहानी गढ़ दी गई की इसे राजा ने मरवा दिया.मरणोपरांत इस कथित प्रेम पुजारी को
आनन-फानन में “शहीद” और “संत” की पदवी भी अता कर दी गई.
इस जबरिया थोपे गए “सन्त वेलेंटाइन”का न तो कोई विशेष इतिहास है और न ही कोई प्रमाणिकता.
फिर इस पक्कम-पक्का काल्पनिक पात्र ने कौन सा ऐसा महान,स्तुत्य कर्म किया जिससे इसे
वन्दनीय-अभिनंदनीय नायकों की फेहरिस्त में शामिल किया जाये.
इसकी स्मृति में हर बरस कोहराम मचाया जाये.
लुच्चई-नंगई-बेहयाई का धिनौना खेल खेला जाये वह भी प्यार सरीखे पाक कर्म के नाम पर.

😛वेलेंटाइन डे स्पेशल😛
“वो भी क्या दिन थे,जब हम हँसी थे,जवाँ थे,
पर उस दौर में प्यार के ऐसे घटिया,सुलभ,प्रचुर अवसर कहाँ थे.”
25,30 साल से जब-जब मैं वेलेंटाइन डे को मनाते देखता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है.
अपनी जवानी को खूब धिक्कारता हूँ.अपने प्यार करने के अंदाज़ की खूब लानत-मलानत करता हूँ.
“वो जवानी,जवानी नही जिसमें कोई कहानी न हो” और “तुमने किसी से प्यार किया है”.
हाँ भई बन्दा भी युवावस्था में “तेरे हुश्न की क्या तारीफ करुं “,
“ऐ फूलों की रानी बहारों की मलिका”,
“खुदा भी आसमां से जब जमीं पर देखता होगा” की मनोदशा,इश्क के एकतरफा जुनून में 27 माह तक श्वान-दशा में रहा जब तक
“तेरी जुल्फों से जुदाई तो नही माँगी थी” का ब्याह नही हो गया.
हर बात में अपना जीवन जीने का तरीका ही अलग है और हमने मोहब्बत भी की तो शशिकान्त स्टाइल में ही की.
27 माह तक किसी की परिक्रमा करते रहे, दिन-रात निहारते रहे
“चाँद को क्या मालूम,चाहता है उसे कोई चकोर”
“पर हाले दिल उसने पूछा ही नही, हमने बताया भी नही”
तथा “हमसे आया न गया,तुमसे बुलाया न गया”
और “दिल के टुकड़े-टुकड़े कर के, मुस्कुरा के चल दिये”.खत्म हो गई एकतरफ़ा प्रेम कहानी.
अगर वर्तमान समय होता तो “मजनू” को 2,4दिन में “लैला” हासिल हो जाती.”
“व्हाट इज यूअर मोबाइल नम्बर” से इश्क आरम्भ होता और “राँझा” की “हीर” कहती और आ जाती दिन दहाड़े
“चली आउंगी मैं पान की दुकान पर”
“खेल खतम,पैसा हजम”.
बात ठीक भी है भईये इस जेट युग में जब सब कुछ इंसटेंट है,फास्ट है तो प्यार-मोहब्बत काहे को बैलगाड़ी की रफ्तार से.
भगवान से हमको इस जन्म में सबसे बड़ी शिकायत यह है की अरे कठोर तूने हमें 1955 मॉडल क्यों बनाया? कुछ इंतजार कर लेता.
हमें 1990-1995 के मध्य धरती पर धकेल देता तो तेरी शान में क्या कमी आ जाती.पर हमें तो जीने का मज़ा आ जाता.
बेहयाई,उदण्डता के प्रतीक वेलेंटाइन डे पर हम भी अशिष्टता,अशालीनता,
असभ्यता,अभद्रता से “बेखुदी में
कमाल कर बैठते, किसी से इज़हार-ऐ-हाल कर बैठते”.
कमाल तो यह भी है की इस लुच्चे दिन दैनिक मज़दूरी वाली टाइप की क्षणभंगुर माशुका को सिर्फ और सिर्फ बड़ा सा लाल गुलाब थमा दो,
हाई क्वालिटी की चॉकलेट चूसा दो,
कोई महंगा उपहार बरसा दो,
मल्टीप्लेक्स में घुसा के कोई धाँसू मूवी दिखा दो.
रेस्तरां में खाओ,वासना में डूब जाओ,कंडोम की बिक्री बढ़ाओ,गर्भ निरोधक गोलियाँ आजमाओ.
वेलेंटाइन डे मनाओ.
“मिल गये दो प्रेमी,पा गये मंजिल” उछल उछल के गाओ.
हमारा तो ये हाल है कि—-
“एक एहसास है रूह से महसूस करो”,
“प्यार कोई खिलौना नही है,हर कोई ले जो खरीद,प्यार हमने किया जिस तरह से,उसका न कोई जवाब” तथा “पराई हूँ,पराई मेरी आरज़ू न कर” के सत्य को जीवन में आत्मसात किये ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं.

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