संपादकीय

गांधी है की मरता नहीं

सा.सिंहघोष के संस्थापक,स्वतंत्र पत्रकार,बेबाक कलमकार स्व.श्री शशिकांत शर्मा जी की कलम से….

अजीब है यह गांधी भी बड़ा सख्तजान मोटी चमड़ी वाला है यह गांधी जो कि लाख क्या करोड़ों प्रयास, करते रहने के बाद भी मर हीं नहीं रहा है जबकि यह भी अटल सत्य है कि आज से ५८ वर्ष पूर्व ३० जनवरी १९४८ दिन शुक्रवार की शाम को बिड़ला मंदिर में प्रार्थना सभा हेतु जाते समय नाथूराम गोडसे ने उन पर तीन गोलियां दागकर उन्हें मौत की नींद में सुला दिया था सदा सदा के लिए। और इस सच्चे महात्मा के मुख से गालियाँ खाने, मृत्यु वरण के वक्त में भी अत्यंत शांत भाव से अंतिम शब्द उच्चारित हुआ था “हे राम”। प्राणोत्सर्ग की घड़ी में भी ७९ वर्षीय इस कृशकाय बूढ़े के चेहरे पर कोई पीड़ा, वेदना की झलक नहीं थी गोलियां से बींधने का दर्द, कराह नहीं प्रकट हुई थीं। वहीं तेजोमय मुखाकृति वहीं निर्भयता वहीं निश्चितता बहीं निर्विकार वहीं अलौलिक शांति के भाव थे उस राष्ट्रपिता के मुंह पर जो उनके जीवन काल में सदैव विराजमान रहते थे।

सत्य, अहिंसा के पुजारी मोहनदास कर्मचंद गांधी का जन्म २ अक्टूबर १८६९ को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था । पिता करमचंद, माता पुतलीबाई एवं पोरबंदरवासियों को गांधी के शिक्षकों, परिजनों, मित्रों, परिचितों को क्या मालूम था कि उनका यह मोहन भविष्य में इतिहास पुरुष, विश्व नायक बन जाएगा। भारत में अध्ययन के पश्चात् उच्च शिक्षा हेतु इंग्लैंड गए गांधी ने लंदन में बैरिस्टरी की उपाधि प्राप्त की वापस स्वदेश आ गए वकालत करने लगे एवं एक केस के सिलसिले में द.अफ्रिका गए। इस समय तक मोहनदास गांधी एक साधारण इंसान ही थे जिसे अपने घर-परिवार,काम-कैरियर, कमाने-खान, सूट-बूट पहनने शानदार जिंदगी जीने, नाम कमाने ( वकालत में) से ही सरोकार था बस इतनी ही थी इनकी दुनिया। इस समय तक गांधी में वे सभी प्रवृत्तियां, मनोविकार, दुनियादारी विद्यमान थी जो किसी भी सामान्य मानव में होती हैं।

परंतु द.अफ्रिका में अपने मुवक्किल की पैरवी के दरमियान उन्होंने रंग-भेद, नस्ल भेद के जा दिल दहला देने वाले रोजमर्रा के दृश्य देखे जालिम ब्रिटिश हुकूमत के जो दानवी जुल्म देखे उनसे उनका जीवन ही बदल गया उनके अंदर का सुषुप्त महात्मा गांधी अचनाक जाग उठा । बस उन्होनें द. अफ्रिका में ही वकालत को तिलांजलि दे बैरिस्टरी भूलाकर अंग्रेजी सरकार की ज्यातियों, औपनिवेशिक सोच, साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ मोर्चाबंदी आरंभ कर दी। लगभग २०, २२ वर्षो तक गी वहीं पर, भारत से बाहर बर्तानवी सल्तनत की पुरजोर खिलाफत कर न्याय स्वतंत्रता, समानता, बंधुता की जंग में जुटा रहा।

१९१५ के करीब भारत वापस आए गांधी को जीवन, जीवन शैली ही परिवर्तित हो चुकी थी वे अब बैरिस्टर नहीं कांतिकारी थे। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था स्वाधीनता अंग्रेजों की दासता से देश की मुक्ति । इसके बाद क्या हुआ गांधी ने क्या- क्या किया देश कोकैसे स्वतंत्र कराया वे कैसे जननायक, महात्मा,राष्ट्रपिता बने इन कहानियों से राष्ट्र का बच्चा-बच्चा भलिभांति परिचित है।

३५०० मील लंबी दांडी पदयात्रा नमक कानून तोड़ने की वीरता, सविनय अवज्ञा आंदोलन, अंग्रेजों भारत छोड़ों, करो या मरो स्वदेशी अपनाओं, विदेशी वस्तुओं की होली, तकली-चरखा- सूत कातना खादी धारण करना, अछूतोद्धार, सर्वधर्म समभाव, नारी कल्याण, सत्याग्रह जैसे जन आंदोलन गांधी की ही देन है। गांधी ने आजादी के आंदोलन को जब आंदोलन बना दिया वह भी बिना किसी हिंसा रक्तपात के उन्होंने समूचे देशवासियों के दिलों में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भावनाओं को ज्वार उठा दिया मात्र शांति, अहिंसा के हथियार के बल पर 1 लंगोटीधारी, बकरी का दूध पीने वाला, एक लाठी (सहारे वास्ते) रखने वाला जर्जर काया वाला, आंखो पर मोटी ऐनक लगाने वाला, शाकाहारी, राम नाम भजने वाला, भगवान पर विश्वास रखने वाला, “वैष्णव जन.. तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे” तथा “रघुपति राघव राजा राम सबको सनमति दे भगवान” का गायन करने वाला मोहनदास गांधी आखिर क्या था !!! ब्रिटीश शासन जिसके राज में सूर्यास्त नहीं होता था जिसके पास लाखों सैनिक थे एक से एक अत्याधुनिक हथियार थे जो द्वितीय विश्व युद्ध का एक विजेता था जिसने हिटलर, मुसोलिनी को परास्त पस्त करने में अहम् किरदार अदा किया था गांधी को क्यों नहीं हरा पाया ? उसके • हौसलों को उसकी संघर्ष क्षमता को उसकी आजादी की मांग को क्यों नहीं कुचल पाया ? क्यों गांधी पर गोलियों की बौछार नहीं कर सका क्यों उसको फांसी के फंदे पर झूला सका क्यों काले पानी नहीं भेज सका ?

गांधी के चरित्र बल, आत्मशक्ति, मनोबल, दृढसंकल्पके आगे अंग्रेजो के समस्त पराक्रम निस्तेज हो गए। गांधी के मन- वचन-कर्म (मनसा वाचा कर्मणा) मे किंचित मात्र भी दोगलापन नहीं था उनकी अहिंसा, सच्चाई ओढ़ी हुई नहीं थी। उनकी शुचिता, सादगी, सत्याग्रह, अपरिग्रह कोई मुखौटा नहीं था उनकी धर्मनिपेक्षता, हरिजन प्रेम, स्वदेशी को आत्मसात करने की भावना, अंत्योदय की कल्पना वोट हड़पने की चालबाजी, कुटिलता नहीं थी । इसलिए उन्होनें एक विशाल साम्राज्य पर विजय हासिल की देश की आजादी को साकार कर दिखाया ।

गांधी राष्ट्रपिता नही बने जनता ने उन्हें राष्ट्रपिता बना दिया गांधीजी प्रधानमंत्री भी नहीं बने थे संत कहलाएं। गांधी ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा कभी कोई पद ग्रहण नहीं किया परंतु वे देश के बापू थे। आजादी के दिन १५ अगस्त १९४७ को जब मुल्क आजादी का जश्न मना रहा था राजधानी दिल्ली रंगीनियों में डूबी हुई थी समग्र विश्व पूछ रहा था “व्हेअर इज गांधी”, गांधी कहां है? उस समय जंग-ए-आजादी का यह महानायक, महामानव कलकत्ता में नोआरवाली में हिन्दू-मुस्लिम दंगों की विभीषिका को शांत कराने में अपने प्राणो की आहुति

देने को तत्पर था विभाजन के दर्द को अपने सीने में खामोशी से झेल रहा था तो “वह बंटवारे से से क्षुब्ध था टूटा हुआ था कुछ भी तो नहीं था गांधी, न उसे शांति -अहिंसा- मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कभी कोई नोबल पुरस्कार मिला न वह राष्ट्राध्यक्ष था फिर भी उनकी हत्या के पश्चात भारत ही नहीं वरन् सारा विश्व स्तब्ध हो गया, आंसुओं के सागर में डूब गया गृहणियों ने तवे पर पड़ी रोटी तक नहीं उतारी ऐसा था गांधी ऐसा था उनका व्यक्तित्व ऐसी थी उनकी लोकप्रियता इतना आदर-सम्मान- स्नेह आशीष देती थी जनता उन्हें।

अब बात लेख के शीर्षक की

ऐसे युगपुरुष, युग दृष्टा, विश्व सृष्टा, अतिमानव, देवतुल्य महात्मा गांधी का बेशक धर्मान्ध, वहशी, कायर नाथूराम गोडसे ने शारीरिक दृष्टि से वध कर दिया किन्तु इसके बाद तो गांधी और अजर अमर हो गया । उसकी निर्भिकता, धर्मनिरपेक्षता, दलित प्रेम, मानवीयता, करुणा, देशभक्ति, विचारधारा, चिंतन तो विश्व व्यापी हो गए। गांधी गया तो .क्या हुआ गांधीवाद समग्र विश्व में छा गया। गांधी को मारना कोई आसान काम है क्या ? गांधी कभी मरते मारे जाते है क्या ? गांधी कभी अप्रासंगिक, असामयिक, अर्थहीन होते है क्या ? नहीं, नहीं, नहीं। लेकिन हम यही कर रहें है हम गांधी को गांधी वाद को रोज मारते है दिन में कई कई गई है। बार उनकी हत्या करते हैं प्रत्येक ‘राष्ट्रवासी करता है हरक्षण हर अवसर ‘पर करता है परंतु वाह रे गांधी यह कभी मरता ही नहीं है।

पाठक पूछेंगे कैसे उत्तर है हमारे कुकर्मों से हम गांधी के हत्यारे है। गोडसे ने तो एक बार ही क्षणिक आवेश में ऐसा किया किंतु हम लेकिन फिर वहीं बात चाहे नाथूराम गोडसे, गोपाल गोडसे, आप्टे गांधी को मारने की नादानी करें या कांशीराम, मायावती गांधी को कितना ही कोसें उनपर काल्पनिक आरोपों की मिसाइलें दागें उनका कद छोटा करने की बाल- सुलभ हरकतें करे या संघी- जनसंघी कथित राष्ट्रवादी हिंदुओं के स्वंय भू कर्णधार गांधी पर कितने ही आरोप लगाएं उनके संबंध में कितनी ही अफवाहें फैलाएं दुष्प्रचार करें इतिहास को तोड़े मरोड़े गांधी मरता ही नहीं है।

उसकी उपादेयता तो निरंतर सर्वग्राही होती जा रहीं हैं गांधी के नाम का जाप करने वाले, गांधी वाद की दुकान चलाने वाले गांधी के बलबूते अपनी नेतागिरी चलाने वाले कांग्रेसियों ने जो गांधी पर अपना सर्वाधिकार सुरक्षित समझते है ने गांधी को गांधीवाद को जितनी अपूरणीय क्षति पहुंचाई है उनके नाम को जितना बदनाम किया है उनके आदर्शों, सिद्धांतों, चरित्रो, मूल्यों की जितनी बेहरमी से हत्या की है, मजाक उड़ाया है उतना तो गांधी के हत्यारों ने उनके कातिलों के समर्थकों ने उनके प्रखर विरोधियों ने भी गांधी पर उतना प्रहार नहीं किया है शिव सैनिकों ने भी नहीं किया है। कांग्रेसियों के इस अक्षम्य अपराध का ही नतीजा है जो कांग्रेस आज हाशिए पर चली गई है बौनी हो।

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